Saturday, April 23, 2011

पहाड़ पर कुछ कविताएँ



पहाड़ की सुबह




कुनमुनाती धूप
पहाड़ों से घाटियों तक
छितर-छितर आयी है।


रात भर कोहरे से
डरा सहमा पहाड़
बहाने लगा है आंसू।


कल की सुबह की तरह
डैने फैलाये पंछी
उड़ने लगे हैं फिर।


खांसता-खखरता सूरज
फिर कल की-सी प्रचंड दुपहरी की
दिल देगा याद


अभी सुबह ही है
और लोग घरों के अन्दर
कल के घाव धो-पोंछ रहे हैं।


जिद्दी रात


धूप/सुबह-सुबह बीन लेती है
शरारती रात के फैलाये सफेद मोती


पर जिद्दी रात
सुबह से पहले ही
हर रोज
‘फिर खोल देती है
लड़ी मोतियों की’







पहाड़


धुएं की सफेद / मटमैली
चादरें लपेट / बूढ़ा पहाड़
सफेद बालों के बीच
अपना रोता कलपता चेहरा
खोजता है।
दुःख की बरसात / हो गयी है शुरू
और चौतरफा उग आये है
नये-नये नाले।

नवीन चन्द्र लोहनी

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